भक्तामर स्तोत्र भक्ति साहित्य का एक अनुपम एवं कान्तिमान रत्न है। शान्त रस मय प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव की भक्ति की अजस्र धारा जिस प्रवाह और वेग के साथ इस काव्य में प्रवाहित है वह अन्त:करण को रस आप्लावित कर देने वाली है। भक्ति का प्रशम रसपूर्ण उद्रेक सचमुच भक्त को अमर बनाने में समर्व है। यह त्रिकालजयी स्तोत्र है। इसकी कोमल कान्त पदावली में भक्तिरस भरा है। हरेक छन्द जैन दर्शन का आध्यात्मिक एवं सांस्कृतिक वैभव मुखरित करता है। इसकी लय में एक अद्भुत नाद है, जिससे पाट करते समय अन्तस्तल का तार सीधा आराध्य देव के साथ जुड़ जाता है। स्तुति के प्रारंभ में भक्त प्रभु के उतने समीप नहीं होता यही कारण है उनके लिये ‘तं’ जैसे प्रथम पुरूष शब्दों का प्रयोग करता है ज्यों ज्यों वह भक्ति में डूबता जाता है।
भगवान में भी ऐक्य का अनुभव करने लगता है और समीपता और घनिष्टता के फलस्वरूप ‘स्व’ ‘तव’ आदि शब्द मुखरित होने लगते हैं। देखते ही देखते असंख्य योजन की दूरी समीपता में बदल गयी और आदिनाथ प्रभु भक्त के हृदय मंदिर में विरामान हो गये। इस प्रकार अत्यन्त भक्ति प्रवण- क्षणों में रचा गया यह एक आत्मोन्मुखी स्तोत्र है। सच कहा जाये तो यह स्तोत्र “शिरोमणि” है। सदियाँ बीत जाने के बाद भी इस स्तोत्र की महिमा और प्रभावशीलता कम नहीं हुई बल्कि उत्तरोत्तर बढ़ती ही जा रही है। आज भी लाखों भक्त बड़ी श्रद्धा के साथ इसका नियमित पाठ करते हैं और अपने अभीष्ट को भी प्राप्त करते हैं।
Writer | Dharmachand Jain |
Book Language | Hindi |
Book Size | 21 MB |
Total Pages | 316 |
Category | Religious - Jain Dharm |